रंग खोये कहाँ?
धुंधली इन आँखों में, बारिशों से धुले,
चेहरे और कुर्सियां..
रौशनी है किन्ही पर्दों पे,.है अँधेरा कई आँखों में, सपनो में
जाने कैसे बनी फिर सुबह, शाम..
खाली फिर कुर्सियां
.
गुनगुनाते कोई गीत भूले हुए,
गीत सपनो के हमने जो देखे कभी ...
हम चले आये फिर भीड़ में भूलने
गीत बचपन के,
सपने संजोये हुए
अंत ही सत्य है,
सच है सुबह,जो चुभती है,
कहती है जिंदा हूँ मैं...
बीती दीपावली, पूछते है दिए, झूमेरें
रौशनी जो कि महँगी है हमको
अगर रोज़ हो।
हमको क्यूँ ज़िन्दगी दी बस एक रात की?
ऐसे जीना के जैसे मेरी ज़िन्दगी की ज़रुरत नहीं।
क्यूँ मुझे क़ैद रखते हो हर साल,
जीने को बस रात भर?
..
रंग खोये कहाँ जानते हैं सभी .
रंग दिखते हैं दहलीज़ के पार .
.किस्सों कथाओं में,
सपनो में उन रातों के-
याद रखते नहीं हम जिन्हें।
रंग दीखते हैं उन राहों पे जिनपे चलने की फुर्सत नहीं.
जानते हैं सभी रंग सच्चे नहीं, आँखों का धोखा हैं,
हमको मिलते नहीं छूने को, क़ैद करने को अपने घरों में
जानते हैं सभी
रंग उतरे हैं काग़ज़ पे, दीवारों पे, जब के खोली थीं आँखें अपढ़, बेज़बाँ
सीख कर ज़िन्दगी और कला जीने की
हमको यादें बहुत हैं
हमें रंगों की अब ज़रूरत नहीं।